वसीयत को रद्द करने के लिए सिविल न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही माना

प्रश्नाधीन मामला, मंगू सिंह और अन्य बनाम राम औतार (द्वितीय अपील संख्या 1035/1996), 20 मार्च, 1985 की पंजीकृत वसीयत को रद्द करने के इर्द-गिर्द घूमता है। मूल मुकदमा वादी, राम औतार द्वारा प्रतिवादियों, जिसमें मंगू सिंह भी शामिल है, के विरुद्ध दायर किया गया था, जिसमें वसीयत को रद्द करने की मांग की गई थी, जिसे कथित तौर पर मंगू सिंह की पत्नी सियावती के पक्ष में धोखाधड़ी से निष्पादित किया गया था। वादी ने दावा किया कि वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों में प्राप्त की गई थी, जब वसीयतकर्ता, हरस्वरूप, गंभीर रूप से बीमार और मानसिक रूप से अक्षम था।

इसमें शामिल महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे:

1. सिविल कोर्ट बनाम राजस्व न्यायालय का क्षेत्राधिकार: एक महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या सिविल कोर्ट को कृषि भूमि से संबंधित वसीयत को रद्द करने के लिए मुकदमा चलाने का अधिकार है, खासकर तब जब वादी का नाम राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज न हो। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि यह मुकदमा उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 331 के तहत वर्जित था और इसे राजस्व न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए था।

2. द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता: एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि जब मूल उपलब्ध हो, तो दस्तावेज़ की फोटोस्टेट कॉपी की स्वीकार्यता, जबकि दोनों में अंतर हो।

कानूनी मुद्दों पर न्यायालय का निर्णय:

न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र की अध्यक्षता में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वसीयत को रद्द करने के लिए मुकदमा चलाने के लिए सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को बरकरार रखा। न्यायालय ने पाया कि वादी द्वारा मांगी गई मुख्य राहत एक धोखाधड़ी वाली वसीयत को रद्द करना था, जो कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 और विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31 के अनुसार स्पष्ट रूप से नागरिक अधिकार क्षेत्र के दायरे में आता है।

न्यायालय ने दोहराया कि यू.पी. जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 331 के तहत प्रतिबंध उन मुकदमों पर लागू नहीं होता है, जहां प्राथमिक राहत एक शून्य या शून्यकरणीय साधन को रद्द करना है। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णयों की पुष्टि की, जिन्होंने वादी के पक्ष में मुकदमा सुनाया था, जिसमें पाया गया था कि वसीयत धोखाधड़ी और गलत बयानी का परिणाम है।

न्यायालय की महत्वपूर्ण टिप्पणियां:

न्यायमूर्ति शैलेन्द्र ने निर्णय के दौरान कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं, जिनमें शामिल हैं:

– अधिकार क्षेत्र पर: “वसीयत को रद्द करने का मुकदमा, जो एक नागरिक अधिकार है, पूरी तरह से सिविल न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है। केवल सिविल न्यायालय को ही ऐसे दस्तावेजों को रद्द करने का अधिकार है, और यू.पी. जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम के प्रावधान इस अधिकार क्षेत्र को समाप्त नहीं करते हैं।”

– वसीयत की प्रकृति पर: न्यायालय ने टिप्पणी की, “विचाराधीन वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों से घिरी हुई थी, और इसका निष्पादन दबाव और अनुचित प्रभाव से मुक्त नहीं था।”

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मामले का विवरण:

– मामला संख्या: द्वितीय अपील संख्या 1035/1996

– पीठ: न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेन्द्र

– अपीलकर्ता के वकील: श्रीमती शिखा सिंह, अजय शंकर, अलराफियो बसीर, डी.के. द्विवेदी, आर.सी. तिवारी, शशि कुमार द्विवेदी, त्रिवेणी शंकर

– प्रतिवादी के वकील: अजीत कुमार, किरण कुमार अरोड़ा, राहुल सहाय

– शामिल पक्ष: मंगू सिंह और अन्य (अपीलकर्ता) बनाम राम औतार (प्रतिवादी)

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