दिल्ली हाईकोर्ट ने नाबालिग भांजी से दुष्कर्म के दोषी मामा की 20 साल की सजा बरकरार रखी; ‘फॉर्मेलिन’ से डीएनए सबूत नष्ट होने पर जताई चिंता

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपनी नाबालिग भांजी के साथ ‘एग्रवेटेड पेनेट्रेटिव’ यौन हमले (aggravated penetrative sexual assault) के दोषी एक व्यक्ति की दोषसिद्धि और 20 साल के कठोर कारावास की सजा को बरकरार रखा है। अपील को खारिज करते हुए, कोर्ट ने चिकित्सा अधिकारियों द्वारा “भ्रूण के ऊतकों” (product of conception) को ‘फॉर्मेलिन’ में सुरक्षित रखने के कारण महत्वपूर्ण डीएनए सबूतों के नष्ट होने पर गंभीर चिंता व्यक्त की, जिससे डीएनए प्रोफाइलिंग संभव नहीं हो सकी।

जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा की एकल पीठ ने दोषी दर्शन मोहर द्वारा ट्रायल कोर्ट के 12 दिसंबर, 2024 के फैसले और 15 जनवरी, 2025 के सजा के आदेश को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने उसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376(2)(f) और 506 तथा यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 6 के तहत दोषी ठहराया था।

हाईकोर्ट ने कहा कि डीएनए सबूतों के अभाव के बावजूद, अभियोजन पक्ष ने पीड़िता की सुसंगत और विश्वसनीय गवाही के आधार पर अपना मामला संदेह से परे साबित किया है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 4 मई, 2020 का है, जब लगभग 17 वर्षीय नाबालिग पीड़िता को पेट में दर्द और मासिक धर्म न आने की शिकायत के बाद दीप चंद बंधु अस्पताल ले जाया गया था। अल्ट्रासाउंड से पता चला कि वह लगभग 15 सप्ताह की गर्भवती थी। पीड़िता ने डॉक्टरों और बाद में पुलिस को बताया कि जनवरी 2020 में उसके सगे मामा (अपीलकर्ता) ने उसके साथ यौन शोषण किया था, जब वह उनके घर रहने आया था।

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अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना के वक्त पीड़िता घर पर अकेली थी। आरोप है कि मामा ने उसे जबरदस्ती पकड़ा, धमकाया और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। आरोपी द्वारा जान से मारने और पिता को बताने की धमकी देने के कारण पीड़िता महीनों तक चुप रही। एफआईआर दर्ज होने के बाद, पीड़िता का गर्भपात कराया गया और डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए भ्रूण के ऊतकों को जब्त कर लिया गया।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि सजा सबूतों के गलत मूल्यांकन पर आधारित है। बचाव पक्ष ने कहा कि एफआईआर दर्ज कराने में लगभग पांच महीने की देरी हुई है और पीड़िता की गवाही में विरोधाभास है। यह भी तर्क दिया गया कि पीड़िता ने “अमित” नाम के एक लड़के के साथ अपने संबंधों को छिपाने के लिए अपने मामा को झूठा फंसाया है। बचाव पक्ष ने अपराध से जोड़ने वाले किसी भी चिकित्सा या वैज्ञानिक सबूत की कमी पर भी जोर दिया।

इसके विपरीत, राज्य के लिए अतिरिक्त लोक अभियोजक (APP) ने तर्क दिया कि धमकियों और पीड़िता के मानसिक आघात को देखते हुए देरी स्वाभाविक थी। राज्य ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 और 30 के तहत वैधानिक उपधारणाएं (presumptions) आरोपी के खिलाफ हैं, जिनका वह खंडन करने में विफल रहा है।

कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

पीड़िता की गवाही की विश्वसनीयता: हाईकोर्ट ने पीड़िता के बयान में विरोधाभास के बचाव पक्ष के दावों को खारिज कर दिया। जस्टिस शर्मा ने कहा कि पीड़िता, जिसने हाल ही में अपनी मां और दादी को खो दिया था, भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर थी। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए पीड़िता के व्यवहार (demeanour) का हवाला दिया, जिसमें नोट किया गया था कि गवाही के दौरान वह “फूट-फूट कर रो रही थी”।

दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 280 का उल्लेख करते हुए, कोर्ट ने कहा कि गवाह के व्यवहार का न्यायिक अवलोकन विश्वसनीयता का आकलन करने का एक तरीका है। कोर्ट ने माना कि एक पीड़ित बच्चे के लिए मामूली विसंगतियां स्वाभाविक हैं और इससे अभियोजन का मुख्य मामला कमजोर नहीं होता।

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लापरवाही के कारण डीएनए प्रोफाइलिंग में विफलता: फैसले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इस “दुर्भाग्यपूर्ण पहलू” पर केंद्रित था कि अनुचित संरक्षण के कारण महत्वपूर्ण जैविक सबूत नष्ट हो गए। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (FSL) और केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (CFSL) की रिपोर्टों ने संकेत दिया कि भ्रूण के ऊतकों से कोई डीएनए प्रोफाइल तैयार नहीं किया जा सका क्योंकि यह “डीग्रेडेड” (नष्ट) हो चुका था।

सीएफएसएल (CFSL) के सहायक निदेशक डॉ. कमल चौहान ने कोर्ट को बताया कि नमूने को फॉर्मेलिन में संरक्षित किया गया था, जो डीएनए के विखंडन का कारण बनता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि किसी जैविक नमूने को सात दिनों से अधिक समय तक फॉर्मेलिन में रखा जाता है, तो डीएनए की रिकवरी की संभावना नगण्य हो जाती है।

कोर्ट ने नोट किया कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और फोरेंसिक विज्ञान सेवा निदेशालय के मौजूदा दिशानिर्देश डीएनए विश्लेषण के लिए भ्रूण के ऊतकों के लिए फॉर्मेलिन के उपयोग को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करते हैं और इसके बजाय ‘नॉर्मल सेलाइन’ और ‘कोल्ड-चेन’ परिवहन को अनिवार्य करते हैं।

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निर्णय और निर्देश

हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि पीड़िता की गवाही “ठोस, सुसंगत, विश्वसनीय है और विश्वास जगाती है।”

सबूतों के संरक्षण में प्रणालीगत खामियों को संबोधित करते हुए, कोर्ट ने डीएनए संग्रह प्रोटोकॉल के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले कट्टावेल्लाई बनाम तमिलनाडु राज्य (2025) का हवाला दिया। जस्टिस शर्मा ने एफएसएल अधिकारियों, पुलिस प्रशासन और दिल्ली सरकार को दिशानिर्देशों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए “एक व्यावहारिक नीति ढांचा विकसित करने” का निर्देश दिया।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “सेलाइन का उपयोग और फॉर्मेलिन का पूर्णतः परिहार एक गैर-परक्राम्य (non-negotiable) वैज्ञानिक आवश्यकता है।”

कोर्ट ने निर्देश दिया कि इस फैसले की एक प्रति सचिव (गृह), सचिव (विधि), एफएसएल और सीएफएसएल के निदेशकों और दिल्ली पुलिस आयुक्त को भेजी जाए ताकि भविष्य में ऐसी लापरवाही न हो।

केस विवरण:

  • केस टाइटल: दर्शन मोहर बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली और अन्य
  • केस नंबर: CRL.A. 168/2025
  • कोरम: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा
  • अपीलकर्ता के वकील: सुश्री साक्षी सचदेवा और सुश्री ऋतिका राजपूत
  • प्रतिवादियों के वकील: श्री नरेश कुमार चाहर (राज्य के लिए APP); श्री अरविंद कुमार (पीड़िता के लिए)

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