इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ की पूर्ण पीठ ने 22 जनवरी, 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। यह फैसला आपराधिक अपीलों से संबंधित प्रक्रियात्मक और विधिक प्रश्नों को संबोधित करता है। यह निर्णय एक खंडपीठ द्वारा संदर्भित प्रश्नों पर आधारित था, जिसमें अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों की शक्तियों और अभियुक्तों की जमानत प्रक्रिया से जुड़े अलग-अलग विचार शामिल थे।
मामले के तथ्य:
संदर्भ की उत्पत्ति:
यह मामला 1999 की आपराधिक अपील संख्या 465 से उत्पन्न हुआ, जिसमें आपराधिक अपीलों की सुनवाई से संबंधित प्रक्रियात्मक मुद्दों को उठाया गया। लखनऊ और इलाहाबाद बेंचों के विरोधाभासी निर्णयों के कारण यह संदर्भ सामने आया।
उठाए गए विधिक प्रश्न:
- मजिस्ट्रेट की जमानत देने की शक्तियां:
क्या CJM या अन्य मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर सकते हैं, जिसे हाई कोर्ट द्वारा अपील के किसी चरण में गैर-जमानती वारंट (NBW) के तहत गिरफ्तार किया गया हो? - हाई कोर्ट के अनिवार्य निर्देश:
क्या हाई कोर्ट मजिस्ट्रेट को ऐसे मामलों में जमानत देने के लिए सामान्य अनिवार्य निर्देश जारी कर सकता है, या क्या इससे न्यायिक विवेक बाधित होता है? - पूर्व आदेशों की वैधता:
2024 में इलाहाबाद बेंच द्वारा जारी निर्देश क्या विधिक रूप से मान्य थे? - उपस्थिति सुनिश्चित करने के तरीके:
हाई कोर्ट के समक्ष अपीलों में अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए वैध तरीके क्या हैं? - एमिकस क्यूरी की भूमिका:
क्या अपील अभियुक्त या उनके वकील की अनुपस्थिति में एमिकस क्यूरी नियुक्त करके सुनी जा सकती है?
कोर्ट के निष्कर्ष और उत्तर:
1. मजिस्ट्रेट की अधिकार क्षेत्र:
पूर्ण पीठ ने निष्कर्ष दिया:
- मजिस्ट्रेट NBW के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत पर रिहा नहीं कर सकते, जब तक हाई कोर्ट द्वारा वारंट में विशेष रूप से ऐसा निर्देश न दिया गया हो।
- धारा 390 सीआरपीसी के तहत, अपीलीय अदालत को इस मामले में विशेष अधिकार प्राप्त है।
2. सामान्य निर्देश अवैध:
- 2024 में इलाहाबाद बेंच द्वारा CJM को स्वचालित जमानत देने संबंधी अनिवार्य निर्देश अनुचित पाए गए।
- ऐसे निर्देश न्यायिक विवेक को बाधित करते हैं।
3. उपस्थिति सुनिश्चित करने की प्रक्रिया:
- कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की अध्याय VI के तहत प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए।
- NBW का सहारा लेने से पहले, सम्मन और संपत्ति जब्ती (धारा 82 और 83 सीआरपीसी) जैसे विकल्पों पर विचार करना चाहिए।
4. एमिकस क्यूरी की नियुक्ति:
- अभियुक्त या उनके वकील की अनुपस्थिति में, एमिकस क्यूरी नियुक्त किया जा सकता है।
- कोर्ट ने कहा कि ऐसा तभी किया जा सकता है जब अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के प्रयास विफल हो जाएं।
5. स्वतंत्रता और प्रक्रिया के बीच संतुलन:
- कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
जजमेंट से उद्धरण:
प्रश्न 1:
क्या CJM या अन्य मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर सकते हैं जिसे हाई कोर्ट द्वारा गैर-जमानती वारंट के तहत गिरफ्तार किया गया है?
उत्तर:
“जहां हाई कोर्ट ने जानबूझकर गैर-जमानती वारंट जारी किया है, वहां मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश ऐसे व्यक्ति को जमानत पर रिहा नहीं कर सकते। इस संदर्भ में हाई कोर्ट के आदेश के निर्देशों का पालन करना अनिवार्य है।”
प्रश्न 2:
क्या हाई कोर्ट सामान्य अनिवार्य निर्देश जारी कर सकता है?
उत्तर:
“हाई कोर्ट द्वारा जारी सामान्य अनिवार्य निर्देश विधिक दृष्टि से उचित नहीं हैं। ये निर्देश मजिस्ट्रेट की स्वतंत्र विवेक शक्ति को बाधित करते हैं।”
प्रश्न 3:
क्या 2024 के आदेश वैध थे?
उत्तर:
“2024 में इलाहाबाद बेंच द्वारा दिए गए निर्देश कानून के गलत व्याख्या पर आधारित थे।”
प्रश्न 4:
व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करने के वैध तरीके क्या हैं?
उत्तर:
“बिना आवश्यक कारण के गैर-जमानती वारंट जारी करने के बजाय, सम्मन या संपत्ति जब्ती जैसे वैकल्पिक उपाय पहले अपनाए जाने चाहिए।”
प्रश्न 5:
क्या अभियुक्त की अनुपस्थिति में अपील सुनी जा सकती है?
उत्तर:
“यदि अभियुक्त जानबूझकर अनुपस्थित है, तो अदालत एमिकस क्यूरी नियुक्त करके अपील की सुनवाई कर सकती है।”
महत्वपूर्ण अवलोकन:
- न्यायिक विवेक का महत्व:
हर मामले का आकलन व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए। - कानूनी सहायता का दायित्व:
न्याय से वंचित होने से बचाने के लिए अदालती सहायता सुनिश्चित की जानी चाहिए। - लंबी हिरासत से बचाव:
प्रशासनिक देरी के कारण अभियुक्तों को लंबे समय तक हिरासत में रखना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। - न्यायिक प्रशिक्षण:
मजिस्ट्रेटों के लिए जमानत के सिद्धांतों पर कार्यशालाओं का आयोजन अनिवार्य किया गया।
प्रभाव और निहितार्थ:
- मानकीकरण:
यह निर्णय यूपी में आपराधिक अपीलों की प्रक्रियाओं में एकरूपता लाएगा। - अधिकारों की रक्षा:
NBW मामलों में मजिस्ट्रेट की शक्तियों को सीमित कर, हाई कोर्ट की प्राथमिकता को बनाए रखा गया। - न्यायिक क्षमता का विकास:
प्रशिक्षण से न्यायिक अधिकारियों को प्रक्रियात्मक कानून की गहरी समझ मिलेगी।